11 नवंबर, 2025 को द्वारका, भारत में हिंदी में दिया गया पाठ।
https://www.youtube.com/watch?v=Jntrb-bND0Q
यह प्रवचन श्रीमद्-भागवतम् में बताए गए दिव्य प्रेम (प्रेम) के स्वभाव का विश्लेषण करता है, और गोपियों के पूर्वराग (आशावादी लालसा) और अनुराग (हमेशा की ताज़गी) पर ध्यान केंद्रित करता है। मुख्य चर्चा बताती है कि कृष्ण का रूप नवनवम (हमेशा नया) है, जिससे गोपियों का प्रेम उनसे मिलने के बाद भी गहरा हो जाता है। श्रीपाद भक्तिवेदांत वन गोस्वामी महाराज भौतिक और आध्यात्मिक राग के बीच अंतर को स्पष्ट करते हैं और जुगल गीत (SB 10.35) में कृष्ण की बांसुरी के लिए गोपियों की पवित्र ईर्ष्या (जलन/जलन) का मज़ाकिया ढंग से विवरण देते हैं, यह बताते हुए कि ये भावनाएँ शुद्ध प्रेम के गहने हैं, दोष नहीं।
| Tempo | Transcrição (Hindi) |
|---|---|
| 01:23:03 | यह क्या है? यह अब पंखा चला दे तो मुझे डिस्टर्ब होता है। ठीक से बैठ जाइए। |
| 01:23:15 | हाँ, मैंने क्या कहा? नाम है **अभिन्न**। इसलिए कृष्ण के बहुत नाम हैं, ऐसे ही रूप है, ऐसे ही गुण है, ऐसे ही लीला है। |
| 01:23:28 | इसलिए **पूर्वानुराग** उसको कहते हैं, जो मिलन के लिए उत्कंठा, मिलन के लिए सम्पूर्णता की जो कामना आई। लेकिन मिलन के **पहले** जो दर्शन के लिए आदि के लिए जो प्रबल उत्कंठा है, वह पूर्वरुराग कहलाता है। |
| 01:23:55 | समझे या नहीं? पहले यह समझना चाहिए, पूर्वरुराग किसको कहते हैं। |
| 01:23:59 | जो मिलन के **पहले** जो प्रबल उत्कंठा है, उनको देखने के लिए आदि। |
| 01:24:09 | उस प्रबल **दर्शन** की जो उत्कंठा है, वह पूर्वरुराग कहलाती है। यह विरह दशा में होता है। |
| 01:24:18 | पूर्वानुराग दो तरह के होते हैं: एक तो मिलन से पहले जो पूर्वरुराग होता है, वह **साधिक** (प्राप्त होने योग्य) होता है। और दूसरा… गोपियों में क्या होता है? मिलन के **बाद भी** पूर्वरुराग होता है। |
| 01:24:41 | जैसे (राधा) कहती हैं, “मैंने कृष्ण को कभी नहीं देखा।” राधा-जी कहती हैं, “ए ललिते! अगर तुम उनको देखे हो इतने सुन्दर, उनका वर्णन करो। कैसा है? पाँव में कैसा आभूषण है?” |
| 01:24:58 | “कैसा उनका मधुर ध्वनि है? अगर तुम वर्णन कर सकती हो,” तो ललिता देवी कहती हैं, “ए पगली! अभी तो तुम मिलकर आ रही हो!” |
| 01:25:09 | (राधा) कहती हैं, “नहीं, मैंने **श्यामसुन्दर** को कभी नहीं देखा।” देखने के बाद भी (राधा) उस दृष्टि से नहीं देख पाई। क्यों? क्योंकि कृष्ण में यह विशेषता है, कृष्ण सदैव ही **नवनवम्** रूप से (प्रतिभा) होते हैं। वह प्रकट होते हैं। |
| 01:25:35 | यह कृष्ण में विशेषता है। यह साधारण नायक-नायिका में नाट्य शास्त्र में यह नहीं होता है। |
| 01:25:47 | एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की उत्कंठा नहीं आती है। दो-तीन-चार बार देख लो—उसके बाद अच्छा नहीं लगेगा। |
| 01:25:59 | इस जगत् में किसी भी वस्तु को एक बार देख लो, धीरे-धीरे तुम्हारी देखने की उत्कंठा घटती जाती है, घटती नहीं जाती है? |
| 01:26:13 | **लेकिन** अप्राकृत जगत् में, जहाँ सदैव नवनवम् रूप में प्रकट होते हैं, वहाँ एक अवस्था आती है, उसको **अनुराग** कहते हैं। |
| 01:26:27 | उसमें **राग** (आकर्षण) होता है। राग शब्द का अर्थ है, प्रबल आकर्षण को राग कहते हैं। |
| 01:26:39 | यानि कि जहाँ स्वाभाविक रूप से इन्द्रियाँ आदि वस्तु के तरफ दौड़ती हैं, उसको राग कहते हैं। |
| 01:26:52 | हम राग किसको कह रहे हैं? हमारे सभी इन्द्रियाँ पाँच तरह के विषयेन्द्रिय सुख के वस्तु के तरफ स्वाभाविक रूप से दौड़ती हैं। |
| 01:27:01 | जैसे आँख, कान, नाक, जीभ, चमड़ी—उनको निमन्त्रण देना नहीं पड़ता? |
| 01:27:10 | आँख का स्वाभाविक प्रवृति क्या है? जहाँ सुन्दर रूप है, वहाँ जाती है। |
| 01:27:17 | कान का स्वाभाविक प्रवृति है, जहाँ सुन्दर ध्वनि है, मधुर ध्वनि है, वहाँ जाती है। कर्कश ध्वनि अच्छी नहीं लगेगी। |
| 01:27:29 | लेकिन जहाँ अच्छी गंध आ रही है, नाक अपने आप ही स्वीकार करती है। |
| 01:27:37 | यदि दुर्गंध आती है, तो नाक कहती है, बंद करो, हम नाक बंद कर देते हैं। |
| 01:27:46 | इसलिए आँख, कान, नाक, जीभ, हाँ, शरीर की जो त्वचा है—*Skin*—ठंडा, गरम, मृदुता—यह सब वह अपने आप ही अनुभव करना चाहती है और स्वीकार करती है। |
| 01:28:05 | ठंडी के मौसम में शरीर क्या चाहता है? त्वचा क्या चाहती है? गरम। गर्मी में ठंडक चाहती है। |
| 01:28:18 | यह इन्द्रियों की जो स्वाभाविक प्रवृति है, इसलिए उसको **राग** कहते हैं। |
| 01:28:28 | पहले यह समझना चाहिए राग किसको कहते हैं। और ऐसे ही अप्राकृत चित् जगत् में, क्योंकि शरीर चिन्मय है… |
| 01:28:38 | गोपियों के शरीर **चिन्मय** (आध्यात्मिक) हैं? हाँ। उनके इन्द्रियाँ भी सारी **चिन्मय** हैं? हाँ। |
| 01:28:50 | जैसे कृष्ण को **सच्चिदानन्द** कहते हैं (*ईश्वरः परमः कृष्णः सच्-चिद्-आनन्द-विग्रहः*), ऐसे ही गोपियों के शरीर कैसे हैं? **सच्चिदानन्द**। |
| 01:29:05 | **नित्य सिद्ध** गोपियों के स्वरूप, सच्चिदानन्द कृष्ण के जैसे ही होते हैं, क्योंकि उनको कृष्ण की ही विस्तार कही गई है। |
| 01:29:16 | (*आनन्द-चिन्मय-रस…*) इस प्रकार, कृष्ण स्वयं अपनी मधुर रस को आस्वादन करने के लिए अपनी प्रेम-शक्ति का स्वरूप श्रीमति राधा-जी को प्रकट करते हैं। |
| 01:29:36 | और राधा-जी ही कृष्ण को सुख देने के लिए अनेक भावों के स्वरूप को प्रकट की हैं। वे सारी गोपियाँ राधा-जी की **अभिन्न** कही गई हैं। |
| 01:29:58 | तो इसका मतलब क्या हुआ? वे सारी गोपियाँ भी कृष्ण से अभिन्न हैं। |
| 01:30:04 | इसलिए कहा गया, (*आनन्द-चिन्मय-रस…*) प्रयोजन यह है, कृष्ण स्वयं अपनी मधुर रस को आस्वादन कर रहे हैं। |
| 01:30:29 | अपवित्र होने का कहीं जगह ही नहीं है। जैसे एक बालक अपनी ही परछाईं के साथ खेल रहा है। |
| 01:30:40 | वह परछाईं उसकी अपनी ही परछाईं है; वह खेल रहा है। बालक एक मूसल गाड़ लेता है, और जब परछाईं को देखता है उसको पकड़े हुए, तो वह परछाईं के साथ ही घूम-घूम कर खेलता है। |
| 01:31:00 | ऐसे ही परमेश्वर कृष्ण गोपियों के साथ विहार कर रहे हैं। वास्तव में वे गोपियाँ कोई और नहीं हैं; वे कृष्ण ही हैं। |
| 01:31:13 | और एक दूसरा उदाहरण देता हूँ: जैसे हम सुबह स्नान करते हैं, तो दाएँ हाथ को बाएँ हाथ से रगड़ते हैं, और साबुन-तेल आदि लगाते हैं। |
| 01:31:30 | बाएँ हाथ से दाएँ हाथ में साबुन-तेल आदि लगाते हैं या नहीं? इसमें कोई दोष नहीं आता है। |
| 01:31:38 | ऐसे ही कृष्ण गोपियों के साथ विहार कर रहे हैं। वास्तव में वे गोपियाँ कृष्ण से **अभिन्न** हैं। |
| 01:31:49 | जब कोई इस **तत्व** को अनुभव करता है और समझता है, तब उसका चित्त में **विकार** (उथल-पुथल) कभी नहीं होता है। जब यह नहीं समझते हैं, तब शरीर में विकार हो जाता है। |
| 01:31:59 | यह **तत्व-ज्ञान** (सत्य का ज्ञान) के अभाव से होता है। हमारी इन्द्रियाँ आदि दुर्बल हैं। चित्त दुर्बल होता है, और इन्द्रियाँ दुर्बल होती हैं। |
| 01:32:17 | जब चित्त और इन्द्रियाँ दुर्बल होती हैं, तो वे **असत् तृष्णा** (अपवित्र कामना) की तरफ दौड़ती हैं। |
| 01:32:27 | इसलिए सात तरह के **अनर्थ**—**स्वरूप भ्रम** (पहचान का भ्रम), **हृदय दुर्बल** (हृदय की कमजोरी), **असत् तृष्णा**, और अपराध की तरफ व्यक्ति चलता है। |
| 01:32:39 | इसलिए हम यह बता रहे हैं, राग किसको कहते हैं। और फिर, जब वही राग और सघन होकर, वह प्रणय, राग, **अनुराग**… |
| 01:32:51 | राग जब और सघन होकर प्रकट होता है, उसको **अनुराग** कहते हैं। |
| 01:32:57 | अनुराग के दो अर्थ हैं: एक तो कृष्ण सदैव नवनवम् रूप में प्रकट होते हुए देखना अनुराग कहलाता है। |
| 01:33:09 | राग के पीछे अनुराग। इसलिए भी अनुराग कहते हैं। *अनु* का मतलब ‘पीछे’—राग के पीछे जो क्रियाएँ और भाव आते हैं, वे भी अनुराग कहलाते हैं। |
| 01:33:26 | तीसरा अर्थ अनुराग कहलाता है। अनुराग के दो लक्षण बताए गए हैं: *परस्पराणु-स्नेह-बन्धनम्* (आपसी स्नेह का बंधन) और **दर्शने अतृप्तता** (देखने से अतृप्ति)। |
| 01:33:38 | तो, तीन अर्थ हैं। अनुराग के तीन अर्थ बताए जा रहे हैं। याद रखेंगे? बताइए, अनुराग क्या है? |
| 01:33:48 | राग के पीछे जो होता है, वह अनुराग कहलाता है। *अनु* का मतलब ‘पीछे’, जैसा **नवयमान** (सदा नया) *अनु* कहलाता है। और अनुराग के दो लक्षण: **दर्शने अतृप्तता** और… |
| 01:34:11 | …*परस्पराणु-स्नेह-बन्धनम्*। वे इतने जुड़ जाते हैं, एक दूसरे के स्नेह से इतना कस कर बंध जाते हैं कि एक पल भी छोड़ना नहीं चाहते। |
| 01:34:25 | और जहाँ छोड़ते हैं, विरह होता है, और वहाँ मृत्यु हो जाती है… अध्यात्म जगत् में मृत्यु नहीं; **मूर्च्छा** (बेहोशी/परमानंद) कहलाती है। |
| 01:34:42 | आज मैं इन तत्वों को बता रहा हूँ। अब हम **युगल गीत** में प्रवेश कर रहे हैं। दो श्लोकों से मैं बता रहा हूँ। |
| 01:34:50 | यह **युगल गीत** के श्लोक, **वेणु गीत** के श्लोकों की तरह ही हैं, लेकिन उनमें थोड़ा अन्तर दिखाते हैं। |
| 01:35:06 | मैंने पूर्वरुराग के बारे में कहा। पूर्वरुराग दो तरह के होते हैं: एक तो कृष्ण के **दर्शन** या मिलन के लिए मिलन से **पहले** जो प्रबल उत्कंठा है। वह पूर्वरुराग कहलाता है। |
| 01:35:22 | और मिलन के **बाद** पूर्वरुराग देखा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यह केवल कृष्ण और गोपियों के लिए होता है। यह **जड़ जगत्** में साधारण नायक-नायिका या नाट्य शास्त्र में संभव नहीं है। |
| 01:35:46 | इसलिए जड़ नाट्य शास्त्र में, वे मिलन के बाद होने वाले इस पूर्वरुराग को स्वीकार नहीं करते हैं। |
| 01:35:54 | समझे? यह कृष्ण के अध्यात्म सिद्ध जगत् में संभव है, क्योंकि कृष्ण सदैव नए नाम और रूप में प्रकट होते हैं। भावना यह है कि ‘मैंने इनको पहले कभी नहीं देखा है।’ ऐसा होता है। |
| 01:36:08 | चलिए। |
| 01:36:11 | विशेष रूप से इस **युगल गीत** में, गोपियों का पूर्वरुराग—अर्थात् मिलन के **बाद** का पूर्वरुराग—का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। |
| 01:36:25 | इस युगल गीत में, वेणु गीत में… गोपियाँ सयानी हो गईं, और उनके परिवार वाले कहने लगे: |
| 01:36:45 | “देखो, तुम सब सयानी हो गई हो। इसलिए तुम सब मिलकर कृष्ण के पास जाना उचित नहीं है।” |
| 01:36:54 | जब छोटी हैं, छोटी बालिका हैं, तब उनसे मिलना स्वीकार्य है। लेकिन जब बड़ी हो जाती हैं, तो क्या होता है? उनको अलग कर दिया जाता है। |
| 01:37:04 | ‘तुम सब मिलकर नहीं मिल सकती हो।’ **गुरुजन** (बुजुर्गों) के आदेश से, वे गोपियाँ कृष्ण के विरह में इतना दुःख पाने लगीं। |
| 01:37:16 | तो, कृष्ण के विरह में दुःख पाते हुए, वे सभी गोपियाँ, अपने-अपने घर में, अपने-अपने समूहों में, अपनी सखियों के पास रहकर, कृष्ण के रूप, गुण, लीला, और माधुरी का वर्णन करने लगीं। |
| 01:37:34 | इसलिए श्रीमद्भागवतम् के २१वें अध्याय में **वेणु गीत** का वर्णन किया गया है। ओहो! यह कथा कितनी सुन्दर है! |
| 01:37:45 | (*इथं शरदम्*)—शरद ऋतु के आने से, नदी और नालों का पानी निर्मल हो जाता है। |
| 01:37:59 | वर्षा ऋतु में नदी, नाले, पोखरों का पानी कैसा होता है? गंदला लगता है, गंदा लगता है। |
| 01:38:10 | **लेकिन** जब शरद ऋतु आती है, तो वर्षा भी बंद हो जाती है। |
| 01:38:20 | आकाश भी निर्मल हो जाता है। और उस समय नदी और नालों में सारे पानी निर्मल हो जाते हैं। |
| 01:38:31 | जितनी भी धूल, गंदगी थी, वह बैठ जाती है। आपने देखा है? और नदी का पानी नीला-नीला सुन्दर हो जाता है। |
| 01:38:43 | एक भी कण चला जाए तो वह नीचे दिखाई देता है। (*इथं शरदम् / शरदम् स्वच्छम पद्माकरम्*)। |
| 01:38:54 | श्रीशुकदेव गोस्वामी पाद ने वर्षा ऋतु का वर्णन करने के बाद, इस शरद ऋतु का वर्णन करने लगे हैं। |
| 01:39:08 | प्रयोजन क्या है? यह साधक की दृष्टि से भी होता है। जब साधक भजन और साधन शुरू करता है, तो उसके हृदय में अनेक प्रकार के **अनर्थ** आदि रहते हैं। |
| 01:39:18 | काम, क्रोध आदि भरा हुआ है। साधु के सङ्ग में भजन-साधन के अभ्यास के साथ, जब रुचि आती है, तब धीरे-धीरे अनर्थ आदि… |
| 01:39:40 | …निकल जाते हैं। लेकिन पूर्ण रूप से नहीं निकलते हैं। **अनर्थ निवृत्ति** के लिए पाँच प्रक्रियाएँ भी बताई गई हैं। |
| 01:39:49 | कितने? **पाँच प्रक्रियाओं** में—**एकान्त वर्तिनी**, **बहुदेश वर्तिनी**, **प्रायिकि पूर्ण**, और **आत्यन्तिक**। **एकान्त वर्तिनी** को जानना चाहिए। |
| 01:40:11 | इस कथा को सुनने के लिए, पहले आपको इसे अच्छी तरह समझना चाहिए। अनर्थ निवृत्ति कैसी होती है? |
| 01:40:17 | काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि। और इन प्रकारों के अलावा, कई और हैं: **स्वरूप भ्रम**, **हृदय दुर्बल**, **असत् तृष्णा**, और **अपराध**। इन सभी अनर्थों का वर्णन किया गया है। |
| 01:40:42 | अगर आप अनर्थों के बारे में नहीं जानते, तो अनर्थ निवृत्ति कैसे करेंगे? यह मल है, गंदी चीज है, और यह भोजन है। |
| 01:40:53 | अगर आप भोजन को मल मान रहे हैं, और मल को भोजन मान रहे हैं, तो चीजें उलटी हो जाएँगी, नहीं? |
| 01:41:02 | दुर्गंध को दुर्गंध समझना चाहिए, और सुगंध को सुगंध समझना चाहिए। |
| 01:41:09 | लेकिन जीव का चित्त जब बद्ध अवस्था में होता है, तो वे दुर्गंध को सुगंध समझते हैं, और सुगंध को दुर्गंध समझते हैं। देखिए, भक्ति केशव गोस्वामी ठीक यही लिख रहे हैं। |
| 01:41:31 | जैसे एक छोटा बालक नहीं जानता कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। |
| 01:41:40 | ऐसे ही जब **विवेक शक्ति** (विवेक की शक्ति) आती है, तो वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। |
| 01:41:51 | जैसे प्रभुपाद ने एक उदाहरण दिया: एक मछुआरा, एक व्यापारी, जो मछलियाँ पकड़ता था और बाज़ार में बेचता था। |
| 01:42:04 | ध्यान से सुनिए। वह बाज़ार गया, मछली से अपनी टोकरी भर ली, और वापस आते समय रात हो गई। |
| 01:42:19 | उस दिन जब रात हुई, तो वह सोचने लगा, “आज रात कहाँ बिताऊँ?” उसको पार्क में एक सुंदर बगीचा मिला। |
| 01:42:29 | जहाँ सुन्दर-सुन्दर फूल खिल रहे थे। समझे? अनेक तरह के सुगन्धित फूल खिल रहे थे। |
| 01:42:41 | वह सोचने लगा, “मैं आज रात यहीं आराम करूँगा।” तो फूलों के बगीचे में, जहाँ सुंदर रात्रि के फूल खिले थे, वहाँ अच्छी खुशबू आ रही थी। |
| 01:42:54 | जैसे जिसको ‘रात की रानी’ कहते हैं—इतनी सुन्दर खुशबू आती है। छोटे-छोटे तारे जैसे फूल होते हैं। |
| 01:43:03 | वह जाकर खुशबू में सो गया, **लेकिन** नींद नहीं आ रही थी। सुगन्धित फूलों के पास सोया, पर नींद नहीं आ रही थी। |
| 01:43:21 | वह सोचने लगा, “क्या करूँ?” तब उसने तय किया: “अब नींद आ जाएगी।” तो वह मछली वाली टोकरी को उठाया और सिर के पास रख दिया। देखिए, वह सो गया। |
| 01:43:35 | बोलिए **वृंदावन बिहारी लाल** की! |
| 01:43:38 | क्योंकि उसकी आदत दुर्गंध में रहने की है, और उसको दुर्गंध अच्छी लगती है। |
| 01:43:48 | **लेकिन** यदि किसी तरह उसको अच्छी खुशबू का स्वाद मिल जाए, तो वह अपने आप ही दुर्गंध को छोड़ देगा। |
| 01:43:57 | इसलिए हम यह कह रहे हैं कि जब तक **विवेक शक्ति** नहीं आएगी, तब तक वह भजन के राज्य में उन्नति नहीं कर पाएगा। |
| 01:44:10 | तो, इसे समझें। इसलिए भक्ति सिद्धांत सरस्वती प्रभुपाद ने इन सभी कथाओं को सुन्दर **उपाख्यानों** (दृष्टांतों) के माध्यम से समझाया है। |
| 01:44:19 | चलिए, मैं अगली कथा सुनाता हूँ। यह सिर्फ़ प्रस्तावना में जाएगा, लेकिन यह भी ज़रूरी है, नहीं? वरना आप क्या समझेंगे? |
| 01:44:31 | दुर्गंध किसको कहते हैं? सुगंध किसको कहते हैं? जब तक वस्तु के सम्बन्ध में अनुभव न हो… |
| 01:44:42 | वस्तु का **रस** (स्वाद) नहीं मिलता है। वस्तु के बारे में ज्ञान है। एक व्यक्ति कीर्तन कर रहा है लेकिन कीर्तन के शब्दों का ज्ञान नहीं है। |
| 01:44:55 | यह उसको नहीं होगा। वह केवल ऊपरी तौर पर बोल रहा है, लेकिन वस्तु का ज्ञान नहीं है। ऐसा नहीं है। |
| 01:45:04 | इसलिए कीर्तन के साथ, आपको उसका **अर्थ** (मतलब) भी समझना होगा। तभी तो रस आएगा, नहीं? |
| 01:45:11 | *कलयति नयनं दबळितं पङ्कजं मृदु-मारुत-चलितम्…* |
| 01:45:30 | *कलयति* पूर्वरुराग—क्यों होता है? और श्रीमति राधिका स्वयं कृष्ण से मिलने जा रही हैं। क्या हो रहा है? पूर्वरुराग। |
| 01:45:50 | और श्रीमति राधिका स्वयं कृष्ण से मिलने जा रही हैं। तो, यह कौन सा **भाव** (भावना) है? यह **अभिसारिका** (नायिका जो प्रेमी से मिलने जाती है) भाव है। |
| 01:45:58 | केवल कीर्तन करने से नहीं होगा। लोगों ने मज़ा लिया, पर खुद नहीं समझा। |
| 01:46:07 | *कलयति नयनं दबळितं पङ्कजं मृदु-मारुत*… यह श्रीमति राधिका जिसका पूर्वरुराग है… किस **नायिका** (नायिका) की बात कर रहे हैं? **अभिसारिका नायिका**। |
| 01:46:25 | राधा-जी अपने प्यारे गोविन्द से मिलने जा रही हैं। वह **अभिसार** कर रही हैं। उसको **अभिसारिका नायिका** कहते हैं। |
| 01:46:36 | आठ तरह की नायिकाएँ होती हैं: **अभिसारिका**, **उत्कण्ठिता**, **वासक सज्जा**, **साधन**… यह तो अंत में आता है। |
| 01:46:50 | बाबा। इसलिए जब ऐसा होता है, तो होता है। हम **वेणु गीत** पर चलते हैं, जो **युगल गीत** का भी वर्णन कर रहा है। |
| 01:46:59 | कृष्ण उस ध्वनि को करते हुए, कैसे सभी को मोहित कर रहे हैं? अब, गोपियाँ क्या कर रही हैं? वे अपने-अपने घर में, अपने-अपने समूहों में बैठी हैं। |
| 01:47:09 | वे अपने घरों में बैठी हैं। क्यों? क्योंकि उनके माता-पिता और बुजुर्गों ने उन्हें अलग कर दिया है। कहा: ‘नहीं, आज से तुम **सत्संग** (शुद्ध संगति) के रूप में कृष्ण से नहीं मिल सकती हो।’ |
| 01:47:28 | ‘तुम सब बड़ी हो गई हो; तुम्हें अलग-अलग जगह बैठना चाहिए।’ ‘जेंट्स इस तरफ, लेडीज़ उस तरफ, ठीक है? यदि आप सब एक साथ बैठते हैं…’ |
| 01:47:38 | …भारतीय सभ्यता और संस्कृति में उचित नहीं है। |
| 01:47:44 | तो, गोपियाँ अब क्या कर रही हैं? वे अपने घरों में बैठी हैं। **लेकिन** कृष्ण के प्रति उनके गहरे **अनुराग** (स्नेहपूर्ण लगाव) के कारण, क्योंकि कृष्ण के प्रति उनका **अनुराग सहजजात** (सहज) है। |
| 01:48:00 | क्या कहा गया है? *सहज गोपी प्रेम नहिको काम* (गोपियों का सहज प्रेम कामुकता नहीं है)। चैतन्य चरितामृत में, गोपियों का कृष्ण से प्रेम एक स्वाभाविक प्रवृति है। |
| 01:48:11 | इसलिए कहा गया, *सहज गोपी प्रेम नहिको काम*। प्रेम शुद्ध, चमकीला प्रकाश है। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ नहीं… हाँ, क्या कहा गया है? जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ **माया** का अधिकार नहीं है। |
| 01:48:32 | *कृष्ण सूर्य-सम माया हय अन्धकार / याहाङ् कृष्ण ताहाङ् नाहि मायार अधिकार*। कृष्ण सूर्य के समान हैं, माया अंधकार है। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ माया का अधिकार नहीं है। कृष्ण सूर्य के समान चमकीले हैं, और माया क्या है? वह अंधकार, अंधकार है। |
| 01:48:47 | इस बात को समझें। सूर्य किसके साथ रहता है? कहा गया है कि वह अपनी प्रिया के बिना नहीं रहता है। सूर्य किसके साथ रहता है? किरण के साथ। |
| 01:49:04 | इस **किरण** को स्त्री-लिंग कहा गया है? सूर्य पुल्लिंग है। समझे या नहीं? तो सूर्य अस्त हो जाता है—किसके साथ? |
| 01:49:21 | वह अँधेरे के साथ जाता है, **निशा** (रात) के साथ। बोलिए, निशा को स्त्री-लिंग कहा गया है। **निशा** (रात) खत्म हो जाती है। |
| 01:49:35 | **रात्रि** (रात), निशा (रात) रात के साथ खत्म होती है। कहा गया है कि सूर्य हमेशा अपनी **प्रिया** (प्रेमिका) के साथ रहता है। |
| 01:49:50 | थोड़ा समझेंगे या नहीं? |
| 01:49:56 | यानि कि कृष्ण और गोपी में कोई अन्तर नहीं दिखा रहे हैं। वे साथ रहते हैं। |
| 01:50:07 | **लेकिन** हम अपनी **जड़ दृष्टि** (भौतिक दृष्टि) से पुरुष और स्त्री में अन्तर करते हैं। कृष्ण पुरुष हैं और गोपियाँ स्त्रियाँ हैं। **लेकिन** गोपियाँ स्त्रियाँ नहीं हैं, और कृष्ण भी पुरुष नहीं हैं। |
| 01:50:23 | कृष्ण को परमेश्वर, **भोक्ता** (भोक्ता) कहा गया है। अब, वह **वेणु गीत** में इसका वर्णन कर रहे हैं। |
| 01:50:33 | कृष्ण ने बाँसुरी बजाना शुरू किया, और गोपियाँ अपने घरों में रहते हुए, अपने भावों को व्यक्त किया। यह २१वें अध्याय में **वेणु गीत** में दिखाया गया है। |
| 01:50:50 | श्रीशुकदेव गोस्वामी पाद ने **वेणु गीत** के बारे में बताया। यहाँ शरद ऋतु का वर्णन दिया जा रहा है। |
| 01:50:59 | और आगे, कृष्ण… श्रीशुकदेव गोस्वामी पाद गोपियों के **रास लीला** का वर्णन करेंगे। २१वें अध्याय में **वेणु गीत** समाप्त हुआ। |
| 01:51:08 | और **रास लीला** कब हुई? किस अध्याय में? २९वें अध्याय से ३३वें अध्याय तक **रास पञ्चाध्याय** (रास के पाँच अध्याय) कहलाता है। |
| 01:51:22 | याद रखें, २१वें अध्याय में **वेणु गीत** आता है। २९वें अध्याय से ३३वें अध्याय तक **रास पञ्चाध्याय** है। |
| 01:51:37 | यानि कि कृष्ण गोपियों को कैसे आकर्षित कर रहे हैं, जिनके हृदय में **पूर्वानुराग** है, उनमें प्रेम आदि भर रहे हैं। |
| 01:51:54 | अब, जिस कथा में हम प्रवेश कर रहे हैं—यह **युगल गीत**, यह **वेणु गीत** और **युगल गीत** जैसा ही लगता है। |
| 01:52:06 | जब वह कोई अच्छी कथा सुनाते हैं, तो गुलाब की माला भी पहनाते हैं। |
| 01:52:15 | कृष्ण जो ध्वनि करते हैं, वह **वेणु ध्वनि** कहलाती है। **वेणु**, **मुरली**, और **बाँशी**। |
| 01:52:31 | बाँशी कई प्रकार की बताई गई है। शास्त्रों में पाँच प्रकार की **बाँशी** का वर्णन किया गया है। |
| 01:52:47 | नौ छिद्रों वाली और १७ अंगुल लम्बी बाँशी को **बाँशी** कहते हैं। |
| 01:53:03 | १७ अंगुल, ऐसे। और कितने छेद होने चाहिए? नौ छेद। **बाँशी**। |
| 01:53:20 | यदि १० अंगुल लम्बी हो और नौ छिद्र हों, तो उसको **महानंदा** कहते हैं। **महानन्दा बाँशी** कहलाती है। चलिए। |
| 01:53:32 | जय श्री कृष्ण। यदि १२ अंगुल लम्बी हो और नौ छिद्र हों, तो उसको **आकर्षणिया** (आकर्षक) कहते हैं। |
| 01:53:45 | और १२… फिर दो, १२ अंगुल लम्बी, और छह छिद्रों के साथ विशेष ध्वनि हो—उसको **वेणु** कहते हैं। |
| 01:53:57 | **वेणु** की मधुरता सभी जीवों के चित्त को पिघला देती है। *सर्व-भूत-मनोहरम्* (सभी प्राणियों को मोहने वाली)—यह भी एक प्रकार है। |
| 01:54:08 | एक वह जो सभी जीवों के चित्त को पिघला देती है, और दूसरी वह जो गोपियों के चित्त को मोह लेती है। |
| 01:54:16 | इसे ध्यान में रखते हुए कई विवरण दिए गए हैं। इसका वर्णन करने में समय लगता है। अब, यदि आप अधिक जानना चाहते हैं, तो एक पुस्तक पढ़ें। |
| 01:54:26 | **कृष्ण प्रेम तरङ्गिणी** में, २६वें अध्याय में, इसका भी वर्णन किया गया है। |
| 01:54:48 | अन्य ऋषि—संगीतकार ऋषियों ने, कहा गया है कि मातंग मुनि ने चार प्रकार की **बाँशी** का वर्णन किया है। |
| 01:55:00 | एक है **महानंदा**, **नंदा**, **विजय**, और **जया**। चलिए, केवल इन नामों को याद रखें। |
| 01:55:10 | १० अंगुल लम्बी बाँशी को **महानंदा** कहते हैं। |
| 01:55:28 | ११ अंगुल लम्बी बाँशी को **नंदा** कहते हैं। और १२ अंगुल लम्बी बाँशी को **विजय** कहते हैं। और १४ अंगुल लम्बी बाँशी को **जया** कहते हैं। |
| 01:55:46 | इसलिए, **वेणु**, **मुरली**, और **बाँशिका**—कृष्ण केवल इन तीन प्रकार के मधुर रसों से अपनी लीलाएँ प्रकट करते हैं। |
| 01:55:57 | विशेष रूप से, **वेणु** का अर्थ है कि इसकी लम्बाई १२ अंगुल होनी चाहिए और इसमें छह छिद्र होने चाहिए। |
| 01:56:07 | **मुरली** की लम्बाई दो बांहों जितनी होनी चाहिए और मुख में एक छिद्र होना चाहिए। |
| 01:56:24 | छिद्र—मुख में केवल एक छिद्र है। पीछे एक छिद्र है, और इसमें चार विशिष्ट छिद्र हैं। |
| 01:56:38 | और **बाँशी** में आधे अंगुल के अन्तर से आठ विशिष्ट छिद्र होते हैं। मुख का छिद्र चार विशिष्ट अंगुल का माप का होता है। ऊपरी भाग तीन अंगुल लम्बा होता है। |
| 01:56:56 | **संमोहिनी**, **आकर्षणनी**, और **आनन्दी वेणु** होती है। **वेणु** मणियों (जवाहरात) से बनी होती है। |
| 01:57:07 | और **मुरली** सोने से बनी होती है। और **बाँशी** बांस से प्रकट होती है। |
| 01:57:16 | इस श्रीमद्भागवतम् में जिस **बाँशी** का उल्लेख है—वह बांस की कही गई है। इसलिए गोपियाँ कहती हैं: |
| 01:57:27 | “ए बाँशी! तुमने कौन सी **तपस्या** की है? तुम हमेशा, हमेशा हमारे प्रिय गोविन्द के होठों के बीच रहती हो।” |
| 01:57:37 | “अरे! और जब कृष्ण **बाँसुरी** बजाते हैं तो अपने मुख में लेते हैं। उनको देखकर हमारे में **ईर्ष्या** (जलन) आ जाती है।” |
| 01:57:51 | कहा गया है कि **बाँशी** पुरुष-लिंग है। जलन तो स्त्री से होनी चाहिए। |
| 01:58:04 | पुरुष को पुरुष से **द्वेष** (घृणा) होता है। स्त्रियों में क्या होता है? जलन, ईर्ष्या, *jealousy*। |
| 01:58:14 | और पुरुषों में क्या होता है? द्वेष, **हिंसा** (हिंसा) होती है। हिंसा और द्वेष—यद्यपि वे पर्यायवाची हैं, फिर भी दो आचार्य उनका अलग-अलग वर्णन करते हैं। |
| 01:58:24 | एक स्त्री, दूसरी स्त्री का रूप देखकर, उसको क्या होगा? जलन होगी; वह कौवे जैसी हो जाएगी। कितनी ईर्ष्या! |
| 01:58:57 | यह स्त्रियों में होता है—जलन होती है। और पुरुषों में क्या होता है? हिंसा। |
| 01:59:09 | हिंसा और द्वेष होता है। **लेकिन** यहाँ, इसका उल्टा देखा जाता है। |
| 01:59:19 | गोपियाँ क्या हैं? गोपियाँ स्त्रियाँ हैं। **लेकिन** देखिए, **बाँशी** क्या है? वह पुरुष-लिंग है। तो, उसको देखकर उनको क्या हो रहा है? जलन, द्वेष आ रहा है—दोनों आ रहे हैं। |
| 01:59:34 | इसलिए गोपियाँ कहती हैं, “ओहो, तुम पुरुष-लिंग हो, और तुम हमारे प्रिय गोविन्द के होठों का अमृत कैसे पी रहे हो?” |
| 01:59:47 | गोपियाँ बाहर से प्रशंसा कर रही हैं। “जैसे तुम राज-सिंहासन पर बैठे हो।” |
| 02:00:05 | उनके हृदय में कितना द्वेष और जलन है। |
| 02:00:15 | “कृष्ण के होंठ दो तकिए जैसे हैं। लगता है कि तुम सीधे उन दो कमलों की पंखुड़ियों के बीच बैठे हो।” |
| 02:00:50 | “तुम्हारा कैसा भाग्य है? ओहो, हमारे प्रिय गोविन्द तो तुम्हारे पैर भी दबाते हैं, तुम्हारी सेवा करते हैं!” |
| 02:01:01 | वह सेवा करते हैं। जब कृष्ण **बाँशी** बजाते हैं, तो उनकी उँगलियाँ धीरे-धीरे ऊपर-नीचे होती हैं। |
| 02:01:09 | यह ऐसा है जैसे कृष्ण उनके पैरों की सेवा कर रहे हैं। इतना ही नहीं! “और देखो, ए बाँशी, तुमने कौन सा जन्म, कौन सा कर्म किया है…” |
| 02:01:22 | “…और हमारे प्रिय गोविन्द तो तुम्हें पंखा भी करते हैं!” यह उनकी पलकों के हिलने से होता है। |
| 02:01:43 | इसलिए गोपियाँ कहती हैं, “देखो, वह तुम्हें पंखा कर रहे हैं।” **लेकिन** वास्तव में, क्या समझा जाता है? यह **ईर्ष्या-सूचक बात** (जलन-सूचक बात) है। |
| 02:01:51 | वे बाहर से प्रशंसा कर रही हैं, **लेकिन** हृदय में जलन आ रही है। वे महसूस करती हैं: “ए बाँशी, मुझे इसे चुरा लेना चाहिए!” |
| 02:02:11 | इसलिए गोपियाँ क्या करना चाहती हैं? वे बाँशी को चुराना चाहती हैं। “इन होठों का अमृत पीने के लिए केवल हम ही योग्य हैं।” |
| 02:02:29 | *कुशल कुशलत्म वेणु*,” तुमने किस तरह की **तपस्या** की है? यह सारी कथा **ईर्ष्या-मूलक कथा** (जलन पर आधारित कथा) है। |
| 02:02:39 | यह बाहर से प्रशंसा है, **लेकिन** हृदय में इतनी जलन आती है। |
| 02:03:06 | वह बाहर से दिखाती है: “हाँ, दीदी, आप बहुत अच्छी हो, आप बहुत अच्छा कीर्तन करती हो।” अपने आप सोचिए। |
| 02:04:00 | इसे समझने की कोशिश करें। **लेकिन** यहाँ, यह असाधारण देखा जाता है। गोपियाँ किससे जल रही हैं? |
| 02:04:08 | बाँशी से। “ए बाँशी, तुम पुरुष-लिंग हो।” वे बाहर से प्रशंसा कर रही हैं, **लेकिन** हृदय में जलन है। इसलिए यह असाधारण लगता है। |
| 02:04:24 | उल्टा देखा जाता है। **अप्राकृत जगत्** (आध्यात्मिक जगत) में **ईर्ष्या**, **द्वेष** आदि ये सब प्रेम राज्य की एक **विशेष महिमा** कही गयी है। |
| 02:04:37 | इस दुनिया में किसी की निंदा करना या प्रशंसा करना दोनों ही पतन का कारण बन जाते हैं। |
| 02:04:50 | **लेकिन** **चित् जगत्** (चेतना के जगत) में, उनकी प्रशंसा और निंदा दोनों ही उनके प्रेम का **सूचक** (संकेतक) कहे गए हैं। |
| 02:05:14 | यह **जड़ जगत्** (भौतिक जगत) और **चित् जगत्** के बीच अन्तर है। |
| 02:05:27 | जो वक्ता बनता है, वह सुनना नहीं चाहता। |
| 02:05:46 | अध्यात्म जगत् में, द्वेष, हिंसा, और निंदा, ये सब प्रेम का सूचक कहे गए हैं। |
| 02:05:57 | इससे **माधुरी** (*madhurimā*) भी पैदा होती है। प्रेम में जलन, द्वेष आदि—वे एक अपराध की भावना को बढ़ाते और तीव्र करते हैं। |
| 02:06:09 | और इस दुनिया में, यह विनाश का कारण बन जाता है। यदि मैं किसी की निंदा करता हूँ, तो वह विनाश का कारण बन जाता है। |
| 02:06:42 | इसलिए भागवतम् में लिखा है: *न निन्दति न प्रशंसति आशु भ्रष्ट* (न तो निंदा करनी चाहिए और न ही प्रशंसा, क्योंकि इससे तत्काल पतन होता है)। |
| 02:07:02 | **लेकिन** अध्यात्म जगत् में, गोपियाँ जो बाँशी की निंदा कर रही हैं, वह निंदा नहीं है। वह प्रेम का लक्षण है। उसको **अनुभाव** (परमानंद का लक्षण) कहते हैं। |
| 02:07:27 | इस दुनिया में प्रेम नहीं है, तो जलन और द्वेष कहाँ से आएगा? वह जलन और द्वेष केवल स्वार्थ के लिए हो जाता है। |
| 02:07:38 | वहाँ **स्वार्थ** (Egoísmo) है। **लेकिन** अध्यात्म जगत् में, जलन, द्वेष आदि, ये सब भावों का **अलंकार** (आभूषण) बन जाते हैं। |
| 02:08:02 | तो, हमें केवल यही समझने की कोशिश करनी चाहिए। अब 8:30 हो गए हैं; मैं समाप्त करने वाला हूँ। नाश्ता भी शुरू होने वाला है। |
| 02:08:17 | श्रीशुकदेव गोस्वामी पाद ने इस **वेणु गीत** के बाद जो गीत वर्णित किया है, उसको **प्रणय गीत** कहते हैं। |
| 02:08:33 | कृष्ण ने अपनी बाँसुरी की ध्वनि से सभी गोपियों को बुलाया: “ए परम भाग्यशाली गोपियो, तुम्हारा स्वागत है।” |
| 02:08:49 | और जब गोपियाँ आईं, तो कृष्ण कहने लगे: “तुम अँधेरी रात में आईं। इस जगह आना उचित नहीं है।” कृष्ण ने उपदेश दिया। |
| 02:09:13 | और इस उपदेश को सुनकर, गोपियों ने अपने भावों को व्यक्त किया। उसको **प्रणय गीत** कहते हैं। |
| 02:09:25 | सभी गोपियों की भावनाओं की अभिव्यक्ति को **प्रणय गीत** कहते हैं। |
| 02:09:28 | क्योंकि शरीर, मन, चित्त आदि एक हो जाते हैं, उसको **प्रणय** कहते हैं। |
| 02:10:09 | इसी प्रकार, अप्राकृत जगत् में, गोपियों के **प्रणय** को लगातार प्रणय कहा जाता है। इसलिए इसे **प्रणय गीत** कहते हैं। |
| 02:10:20 | क्योंकि कृष्ण ने बहुत उपदेश दिए। इस कथा को सुनकर, गोपियों के हृदय को बहुत दुःख हुआ। |
| 02:10:44 | कृष्ण ने कहा: “तुम चली जाओ।” गोपियाँ कहती हैं: “हम तो चली जाएँगी, वास्तव में। **लेकिन** हम कैसे जाएँगी? तुम हमारा मन वापस कर दो।” |
| 02:11:21 | “तुमने हमारे **मन-रूपी मणि** (मन-रूपी रत्न) को चुरा लिया है।” |
| 02:11:32 | और यदि तुम हमारे मन की मणि वापस कर दो, तो इस प्रकार, गोपियों ने अपने भावों को बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त किया। उसको **प्रणय गीत** कहते हैं। |
| 02:11:45 | उसके बाद, कृष्ण ने **रास विहार** किया, और फिर कृष्ण रास से **अन्तर्ध्यान** (गायब) हो गए। |
| 02:11:58 | तब सभी गोपियाँ, यमुना के किनारे पर एकत्रित होकर, कृष्ण की अनेक प्रकार की लीलाओं का अत्यन्त मधुर ध्वनि के साथ **कीर्तन** किया। उसको **गोपी गीत** कहते हैं। |
| 02:12:28 | गोपियों ने कृष्ण से कई प्रश्न पूछे, और कृष्ण ने भी सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। उसके बाद, कृष्ण बहुत संतुष्ट हुए। |
| 02:12:40 | यहाँ ऐसा करते हुए, २९वें अध्याय से ३३वें अध्याय तक, **रास पञ्चाध्याय** समाप्त हुआ। |
| 02:12:56 | उसके बाद, ३५वें अध्याय पर आकर, गोपियाँ फिर से कृष्ण की **वेणु** (बाँसुरी) की महिमा का **कीर्तन** करने लगीं। |
| 02:13:08 | इसको **युगल गीत** कहते हैं। दो श्लोकों के कारण इसको **युगल गीत** कहते हैं। |
| 02:13:19 | यह हमारी पहली पीठिका (आधार) है। इस **युगल गीत** में गोपियाँ क्या करती हैं? (*संस्कृत श्लोक का उद्धरण…*) |
| 02:13:58 | इन दो श्लोकों के माध्यम से गोपियों ने अपने भावों को व्यक्त किया, और बाँसुरी की ध्वनि उन पर आई। इसलिए इसको **युगल गीत** कहते हैं। |
| 02:14:14 | कल, हम इस कथा का वर्णन करेंगे। आज तो सिर्फ़ प्रस्तावना ही हुई है। एक क्लास तो केवल प्रस्तावना में ही चली गई। |
| 02:14:24 | कल की ओर बढ़ते हुए, यह **युगल गीत** बहुत सुन्दर कथा है। यह **वेणु गीत** जैसा ही लगता है, लेकिन गति में थोड़ा अन्तर के साथ भी वर्णित है। *हम्म*। जय जय श्री राधे। |